आल्हा छंद: परिभाषा, विशेषताएँ और उदाहरण
आल्हा छंद क्या है?
- आल्हा छंद हिंदी साहित्य का एक प्रसिद्ध लोक छंद है जो मुख्य रूप से वीर रस की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है।
- यह छंद उत्तर भारत विशेषकर बुंदेलखंड क्षेत्र में ‘आल्हा’ गायन शैली में प्रचलित है।
आल्हा छंद की परिभाषा
आल्हा छंद में कुल 24 मात्राएँ होती हैं जो दो चरणों (पंक्तियों) में विभाजित होती हैं। प्रत्येक चरण में 12-12 मात्राएँ होती हैं और अंत में तुक (समान अंत) का प्रयोग किया जाता है।
आल्हा छंद के मुख्य लक्षण
मात्रा संरचना:⇒ 12-12 (कुल 24 मात्राएँ)
तुकांत:⇒ दोनों चरणों में समान अंत (तुक) होता है
भावपूर्ण:⇒ मुख्य रूप से वीर रस की अभिव्यक्ति
लयबद्धता:⇒ युद्ध और शौर्य के वर्णन के लिए उपयुक्त
भाषा:⇒ सरल और ओजस्वी शब्दावली
आल्हा छंद के उदाहरण
युद्ध वर्णन:
“तलवारों की झनकार सुन, काँप उठी धरती,
खून की नदियाँ बह निकलीं, छा गया अंधेरी रात॥”
वीर रस:
“ललकार के बोले मलखान सुनो राजा पृथ्वीराज,
तुम्हारे सामने खड़ा है महाबली परम प्रताप॥”
आल्हा छंद का ऐतिहासिक महत्व
- बुंदेलखंड की लोक परंपरा का अभिन्न अंग
- आल्हा-ऊदल की वीरगाथाओं का वाहक
- युद्धों के वर्णन का प्रमुख माध्यम
- लोकगायकों द्वारा सैकड़ों वर्षों से गाया जाने वाला छंद
आल्हा छंद और अन्य छंदों में अंतर
दोहा:⇒ दोहे में 24 मात्राएँ (13-11) होती हैं जबकि आल्हा में 24 (12-12)
बरवै:⇒ बरवै में 12 मात्राएँ (6-6) होती हैं जबकि आल्हा में 24
सवैया:⇒ सवैया में मात्रा गणना अलग होती है और यह अधिक जटिल होता है
निष्कर्ष
- आल्हा छंद हिंदी साहित्य की एक अनूठी विधा है जो वीर रस और युद्ध वर्णन के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।
- यह छंद भारतीय लोक परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा है और आज भी लोकगायकों द्वारा गाया जाता है
- यह छंद वीरता और शौर्य की अभिव्यक्ति के लिए यह छंद सर्वोत्तम माना जाता है।